
इस स्थान पर पहली बार हुई थी श्रीराम और हनुमानजी की दिव्य मुलाकात
हनुमानजी को भगवान श्रीराम का सबसे बड़ा भक्त माना जाता है। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं, और यह कहा जाता है कि बिना हनुमानजी के, न राम हैं और न ही रामायण। भगवान श्रीराम और हनुमानजी का संबंध अत्यंत गहरा और अद्वितीय है। कहते हैं कि दुनिया श्रीराम के बिना नहीं चल सकती और श्रीराम भी हनुमान के बिना अधूरे हैं।
जब रावण ने पंचवटी (जो महाराष्ट्र के नासिक के पास स्थित है) से माता सीता का अपहरण कर श्रीलंका ले जाया, तब राम और लक्ष्मण ने पूरे वन में सीता को खोजने की यात्रा शुरू की। इस दौरान कई मौके आए जब वे निराश और हताश हो गए थे।
साथ ही, किष्किंधा के वानरराज बाली और सुग्रीव के बीच युद्ध भी हुआ था, जिससे सुग्रीव को ऋष्यमूक पर्वत की एक गुफा में शरण लेनी पड़ी। इसी पर्वत के पास अंजनी पर्वत था, जहां हनुमानजी के पिता का राज था और हनुमानजी वहीं रहते थे।जब राम और लक्ष्मण सीता की खोज करते हुए ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे, तो सुग्रीव भयभीत हो गए। उन्हें लगा कि कहीं यह बाली के भेजे हुए तो नहीं हैं।
राम हनुमान मिलन चौपाई :
आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया॥
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥
भावार्थ : श्री रघुनाथजी फिर आगे चले। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। वहां (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बल की सीमा श्री रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर- भयभित हो गए॥1॥- रामचरित मानस (किष्किंधा कांड)
उन्होंने हनुमानजी से कहा कि वह ब्राह्मण का रूप धारण करके राम और लक्ष्मण से मिलकर उनका हृदय जानने की कोशिश करें। यदि वे बाली के भेजे हुए हैं तो वह तुरंत गुफा से बाहर निकल जाएंगे।
हनुमानजी ने ब्राह्मण का रूप धारण किया और विनम्रता से राम और लक्ष्मण से पूछा कि वे कौन हैं, जो इस कठोर वन में विचर रहे हैं। राम ने उन्हें बताया कि वे कोसलराज दशरथ के पुत्र हैं और अपनी पत्नी सीता की खोज में वन में हैं। इस पर हनुमानजी ने उनका सही पहचान लिया और उनके चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा कि वह वर्षों बाद अपने प्रभु को पहचान पाए हैं और अपनी भूल के लिए माफी मांगी।
हनुमानजी ने अपनी वास्तविक रूप प्रकट किया और भगवान राम ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। राम ने हनुमान से कहा कि वह उन्हें लक्ष्मण से भी अधिक प्रिय हैं, क्योंकि वह सदैव अपने सेवकों को प्रिय मानते हैं।
यह ऐतिहासिक मिलन उस समय हुआ था, जब श्रीराम को 5 जनवरी 5089 ईसा पूर्व को वनवास मिला था। इस समय उनकी आयु 25 वर्ष थी और वनवास के 13वें वर्ष में उनका खर और दूषण से युद्ध हुआ था। यह घटना 7 अक्टूबर 5077 ईस्वी पूर्व की है। बाद में, जब भगवान राम ने बाली का वध किया, तब वह दिन अषाढ़ मास की अमावस्या और सूर्य ग्रहण के दिन था, जो 3 अप्रैल 5076 ईस्वी पूर्व को आया था।